17 सितंबर, 2023

अहम् और मम

ममता बहुत बड़ा मल है। ममता दुख रूप होती है। ममता जितनी अधिक होती है मनुष्य को उतना ही कष्ट होता है। यहां तक कहा गया है कि "ममता तरुन तमी अंधियारी, राग द्वेष उलूक सुखकारी"  ममता अमावस्या की काली रात है, उसमें राग द्वेष रूपी उल्लू सुख पाते हैं।

यदि हमारी बेटे में ममता है तो उसको कोई भी आदमी पीटेगा तो हमें उस आदमी से द्वेष हो जाएगा।

और यदि हमारी स्त्री या बहु में ममता है तो उसको कोई भी देखेगा तो द्वेष हो जाएगा। 


जहां ममता है वहां राग द्वेष जरूर रहता है। 

चाहे वह ममता छोटे बच्चे में कर लो या एक स्त्री में।

तो ममता का क्या अर्थ है ? ममता का अर्थ है मेरापन 

विभीषण जी ने कहा है - ममता तरुन तमी अंधियारी  

यह ममता काली रात्रि के समान है जहां ममता है वहां राग- द्वेष भी जरूर होता है । जब तक ममता है तब तक भगवान नहीं आएंगे , और भगवान आ गये तो ममता नहीं रहेगी-- तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।   यह ममता रूपी रात्रि तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता।

भगवान में प्रेम हो गया तो यह स्त्री, बेटा,बेटी की सब ममता खत्म हो जाएंगी 

सब जगह यह अखंड नियम है।

तो फिर ममता का आखिर करें क्या, इसे कहां लगाएं ?

तुलसीदास जी कहते हैं-

तुलसी ममता राम सों समता सब संसार।

राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार।।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जिनको श्री राम चंद्र जी में अपनत्व (मैं राम जी का और राम जी मेरे हैं) की ममता है और इस जगत को बिना भेदभाव के समत्व यानी समता(ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर) है ,जिनका किसी के प्रति राग,द्वेष,दोष और दुख आदि का भाव नहीं है, ऐसे श्रीराम प्रेमी भक्त बिना परिश्रम भवसागर पार हो जाते हैं।

 हम मरते हैं संसार में ममता करने के कारण ही भगवान में ममता हो जाए तो कभी मरना ना पड़े

श्रीमद् भागवतम 5.5.8 में कहते हैं

           पुंस: स्त्रिया मिथुनीभावमेतं तयोर्मिथो हृदयग्रन्थिमाहु: ।

               अतो गृहक्षेत्रसुताप्तवित्तैर्जनस्य मोहोऽयमहं ममेति ॥ ८ ॥

स्त्री तथा पुरुष के मध्य का आकर्षण भौतिक अस्तित्व का मूल नियम है। इस भ्रांत धारणा के कारण स्त्री तथा पुरुष के हृदय परस्पर जुड़े रहते हैं। इसी के फलस्वरूप मनुष्य अपने शरीर, घर, सन्तान, स्वजन तथा धन के प्रति आकृष्ट होता है। इस प्रकार वह जीवन के मोहों को बढ़ाता है और “मैं तथा मेरा” के रूप में सोचता है।

पुरुरवा भी उर्वशी के मोह में पड़कर अत्यंत दुखी होने के बाद अंत में यही निष्कर्ष निकालता है, अंत में यही समझता है -"चूँकि मैने अपनी बुद्धि को मन्द बनने दिया और चूँकि मै अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर सका, इसलिए मेरे मन का महान् मोह मिटा नहीं यद्यपि उर्वशी ने सुन्दर वचनों द्वारा मुझे अच्छी सलाह दी थी। भला मै अपने कष्ट के लिए उसे कैसे दोष दे सकता हूँ जबकि मै स्वयं अपने असली आध्यात्मिक स्वभाव से अपरिचित हूँ? मै अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर पाया, इसीलिए मै उस व्यक्ति की तरह हूँ जो निर्दोष रस्सी को भ्रमवश सर्प समझ बैठता है।" (श्रीमद् भागवतम 11.26.16)

इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को सारी कुसंगति त्याग देनी चाहिए और सन्त भक्तों की संगति ग्रहण करनी चाहिए जिनके शब्दों से मन का अति-अनुराग समाप्त हो जाता है

आसक्ति होती है शरीर को ‘मैं’ मानकर और ममता होती है शरीर से संबंधित वस्तुओं को ‘मेरा’ मानकर। अहम् को कृष्ण में समर्पित करके ममत्व को भी कृष्ण में लगा कर के ही हम बंधन से मुक्त हो सकते हैं और आनंदकंद से युक्त हो सकते हैं। 

जिसने मनुष्य जीवन पाकर भी भवसागर से, विकारों के आकर्षण से खुद को नहीं बचाया, जो आत्मा-परमात्मा के ज्ञान में नहीं आया, वह मंदमति है, आत्म-हत्यारा है, अधोगति को जायेगा। यह जीव किसी भी वस्तु या जगहमें आसक्ति, प्रियता या वासना रखेगा, उसे मृत्युके बाद चाहे कोई भी योनि मिले, उसी जगह आना पड़ेगा । पशु-पक्षी, चिड़िया, चूहे आदि उसी घरमें जाते हैं । जिसमें पूर्व-जन्ममें राग था ।

                 कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।        (गीता १३/२१)

अतः भगवान कपिल स्वयं कहते हैं कि -

                  मदाश्रया: कथा मृष्टा:श‍ृण्वन्ति कथयन्ति च ।

                  तपन्ति विविधास्तापा नैतान्मद्गतचेतस: ॥ २३ ॥         (श्रीमद् भागवतम 3.25.23)

निरन्तर मेरे अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कीर्तन तथा श्रवण में संलग्न रहकर साधुगण किसी प्रकार का भौतिक कष्ट नहीं पाते, क्योंकि वे सैदव मेरी लीलाओं तथा कार्यकलापों के विचारों में ही निमग्न रहते हैं। यदि कोई मुझको छोडक़र अन्य की शरण ग्रहण करता है, तो वह जन्म तथा मृत्यु के विकट भय से कभी छुटकारा नहीं पा सकता


                     प्रसङ्गमजरं पाशमात्मन: कवयो विदु: ।

                     स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ॥ २० ॥     (श्रीमद् भागवतम 3.25.20)

प्रत्येक विद्वान व्यक्ति अच्छी तरह जानता है कि सांसारिक आसक्ति ही आत्मा का सबसे बड़ा बन्धन है। किन्तु वही आसक्ति यदि स्वरूपसिद्ध भक्तों के प्रति हो जाय तो मोक्ष का द्वार खुल जाता है।


3 टिप्‍पणियां:

  1. ममत्व ही जीव के बंधन का कारण है। इसी कारण जीव विभिन्न योनियों में भटकता रहता है ममत्व के कारण ही जीव जीवन के अंतिम क्षणों में भी उन्हीं का स्मरण करता है , जिसमें उसकी आसक्ति है।यही आसक्ति भवबंधन में डालती है ।

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  2. हरि बोल ममता यानि आसक्ति इसी को छोड़ना है और प्रभुसे नाता जोड़ना है बहुत सुन्दर वर्णन जय हो

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  3. ममत्व के कारण ही जीव विभिन्न योनियों में भ्रमण करता रहता है ममत्व ही जीव के बंधन का कारण है। इसी आसक्ति के कारण
    मनुष्य अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी भगवान को याद नहीं कर पाता फलस्वरूप भगवान के धाम नहीं जा पाता।

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